मन
अजीब है ये ज़िदंगी भी और ये मन इतना चंचल एक पल इधर तो दूसरे ही पल फुर्र से उधर विचलित सा बेचैन, मस्तमौला, मनमौजी कितनी ही कोशिशें की हैं कैद करने की इसे ढालने की एक साँचे में बाँधने की हर कोशिश नाकाम। ठहरता है थोड़ी देर, ठिठकता सा है, इधर उधर और जितने में एतबार होने लगे ज़रा कि संभल गया, सुलझ गया आया ऊँट पहाड़ के नीचे, भग लेता है फिर किसी बहाने से सरपट, दूर परे उस नीले गगन के तारों के पार अनंत के आँचल में, उस परिंदे सा, जो पिंजरे से निकलकर अपने अस्तित्व की आज़ादी को जीता है। अर्थ- तर्क- वितर्क की भाषा कहाँ समझता है ये मन? इसे तो बस स्वतंत्रता समझ आती है उड़ान समझ आती है बागी, ज़िद्दी सा बेचैन, मस्तमौला, मनमौजी सा ये मन।। शिखा गुलिया