यादें
यादें, यादें ही तो रह जाती हैं वक्त को समेट लेती हैं खुद में, थाम लेती हैं पलों को। मुट्ठी में रेत सा फिसलता चला जाता है समय, निरंतर, अविचलित सा । पुराना, जर्जर, बेरंग सा वक्त का कोई दरवाज़ा, दूर किसी कोने में मन के, एकाएक खटखटा जाती हैं यादें । अजीब फितरत है इनकी, ढेरों मिजाज़, रंग, रूप। कभी होठों के कोनों पर तैरती हँसी सी दिखती हैं ये, तो कभी पलकों पर धरे आँसुओं सी। यादें, यादें ही तो रह जाती हैं। शिखा गुलिया