घर

घर
जहाँ सुकून है।
घर, जो सिर्फ़ छत दीवारों का ढाँचा नहीं है
आत्मियता से सीन्चा हुआ वो पौधा है जो समय के साथ एक वट वृक्ष बन जाता है
जिसकी छाँव में धूप की तीव्रता का अहसास भी नहीं होता
वो घर जिसकी नींव में प्यार और विश्वास है
जिसके दरवाज़े हमेशा बाँहें फैलाए तुम्हारा इंतज़ार करते हैं
घर, जिसके रोम रोम में यादों की महक है
वो घर जो अपना है
जिसे ईंट दर ईंट गढ़ा है तुमने
जिसकी रँगाई पुताई में जीवन के सारे रंग उकेर दिये हैं तुमने
करीने से सजाया है जिसे
तुम कहीं भी जाओ लौट कर वापस आओगे यहीं,
तुम्हारी थकन मिटेगी यहीं,
चैन की नींद आएगी यहीं।
वो घर जो रौशन है तुम्हारे सपनों से, उम्मीदों से!
वो घर जहाँ आत्मा बस्ती है तुम्हारी,
दिल धड़कता है जहाँ।
घर जो तुम्हारी आदत है,
तुम्हारे अनगिनत जज़बातों का जमघट है
वो घर
वो घर होना चाहती हूँ मैं तुम्हारा।।
-शिखा गुलिया

Comments

Popular posts from this blog

The letter

मन